मिथिला कें व्यापक परिप्रेक्ष्य मे जनबाक आग्रही 'प्रणव नार्मदेय'


एहि सदीक नवागंतुक पीढ़ीक कवि लोकनि मे प्रणव नार्मदेय एकटा प्रमुख नाम छथि. हिनकर कविता सहज-सरल तऽ होइते अछि जे हिनकर खाँटी शब्द, प्रतीक ओ बिम्ब सेहो खास होइछ. कविता मे मानवीय संवेदनाक संगहि समाज ओ सभ्यताक लेल चिंतन पाठक कें आकर्षित करैत अछि.

एहि कविक 36 गोट कविताक एकटा महत्त्वपूर्ण संग्रह 2017 मे प्रकाशित भेलनि, ‘विसर्ग होइत स्वर’. एहि संग्रहक कविता सभ बेस पठनीय ओ मनन करबा जोगरक अछि. संग्रहक कविता सभ मे कवि अपना समयक समाज, संस्कृति, प्रकृति आदि पर सूक्ष्मता ओ गम्भीरता सँ विचार करैत एहि सभक ले-ऊँच कहै छथि. 

कवि कहैत छथि नैतिकताक क्षरण, सामान्य लोकक पीड़ा, राजनीतिक खसल चरित्र आ समयक आन-आन विडम्बना सभ. कवि पुत्रक कर्तव्य सेहो नहि बिसरैत छथि आ उपटैत जंगल सँ आहत होइतो नीक भविष्यक सपना सेहो छनि आँखि मे. एहि संग्रह मे विषयक दृष्टिएँ विविधता बेस आकर्षक अछि.

कवि मनुक्ख द्वारा काटल जाइत गाछ-बिरीछ ओ जंगलक स्थिति सँ बेचैन छथि. कवि बेटीक भ्रूणहत्या सँ सेहो व्यथित छथि. कविक चिन्ता सभ्यताक भविष्य लेल छनि. कारण जे गाछ आ बेटीक बिना मनुक्खक अस्तित्वक रक्षा संभव नहि. ओ एहि सत्य कें, एहि चिन्ता कें अपन एकटा कविता मे प्रभावी ढंगें उठबैत छथि आ सेहो तकरा किसान आत्महत्याक संदर्भ सँ जोड़ि कए. देखल जाए एहि कविताक किछु पाँति - 
'तखन तऽ / जेना जा रहल घटल / गिनती धियाक आ रकबा जंगलक / तहिना / जा रहल बढ़ैत / बेचैनी बेटीक बापक / आँकड़ा किसानक आत्महत्याक' (धी आ बेख)

कवि माए, मातृभूमि आ मातृभाषा कें अनमोल मानैत छथि. हुनका नजरि मे संसार भरिमे एकर तुलना मे आओर किछु नहि अछि. हमरा लोकनि कें अपना पर गौरव करबाक चाही. जे लोक एहि महत्त्व कें नहि बुझैत छथि, हुनका पाछाँ पछताय पड़ै छनि. हुनकर भाव एहि पंक्ति सँ बुझल जा सकैए -
'सदिखन जाय अनभुआर डारि / गौरवे आन्हर जे भेल फिरय / अपन सहरजमीन जे बिसरल / ठोकर खाय मुँह भर गिरय' (मायक बोल).


वर्तमान समय मे संवेदनाक बहुत बेसी कमी भए गेल अछि. सब ठाम, सभक आगाँ निजी स्वार्थ ठाढ़ रहैत अछि. लोक दोसराक मात्र उपयोग (Use) करैत अछि. समस्त संबंध-सरोकार जेना अभिनय मात्र रहि गेल हो. एहना स्थिति मे सुद्धा लोक डेग- डेग पर ठकल जाइए, मानसिक रूपें शोषित होइए, दुखी होइए. एहि मे सं बहुत रास लोक भीतर सँ टूटि जाइए. ओकर मन घबाह भए जाइ छै आ जकर कोनो दवाइ कतहु नै भेटै छै. आ एहना स्थिति मे एहन किछु मानसिक रूपें घबाह लोक समाजक अहित कऽ बैसैत अछि. कवि समय आ समाजक एहि स्थिति कें सूक्ष्मताक संग अकानैत छथि. एहन व्यथित लोकक प्रति हुनकर मनमे संवेदना छनि. एहन स्थितिक प्रति समाज केँ साकांक्ष करैत कहैत छथि जे -
'कहलहुँ ने / शरीरक घावसँ / बेस मारुक होइछ / मोनक घाव!' (घाव).


मनुक्ख जहिया जंगल मे रहैत छल, असभ्य छल तहिया ने मात्र मनुक्खक संग अपितु प्रकृतिक समस्त उपादानक संग हीलिमीलि  कऽ रहैत छल. मुदा जेना-जेना सभ्यताक विकास होइत गेलै तेना-तेना मनुक्खक स्वभाव आ लक्ष्य मे परिवर्तन आबए लगलै. मनुक्ख विकासक बदला विनाश दिस बढ़ैत गेल आ परिणाम भेल नित्तहु युद्ध आ खून. आ से एना भए रहलैए अपन किंवा अपना समूहक वर्चस्व कायम करबाक लेल ओ अपना कें श्रेष्ठ साबित करबाक लेल. कवि एकरा मानवक विकास मे बाधक मानै छथि. देखू एहि संदर्भक किछु पाँति सभ -
'शोणितक मोसि सँ मुदा / नित्तह जा रहल पाड़ल / नव-नव सीमा आ सरहद / अपन-अपन वर्चस्वक प्रदर्शन लेल' (शोणितक मोसि सँ).

कविक मिथिला कें व्यापक परिप्रेक्ष्य मे जनबाक आग्रह, मजूर वर्गक हेतु सहानुभूति, पिताक प्रति कृतज्ञता आदिक संगहि समस्त विडंबनाक अछैतो नीक भविष्यक सपना ओ कामना छनि. कवि मैथिली शब्द, मोहाबराक सुन्दर उपयोगक संगहि बिम्ब ओ प्रतीकक चिक्कन प्रयोग केने छथि. हिनक ई पहिल संग्रह छनि. कवि कें बधाइ ओ शुभकामना.

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पोथी: विसर्ग होइत स्वर (2017)
विधा: कविता
कवि: प्रणव नार्मदेय
प्रकाशक: नवारंभ (पटना/मधुबनी)
दाम: 120 टाका, पृष्ठ: 80 

समीक्षा: मिथिलेश कुमार झा


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