मैथिली कविता: समाजक महत्तर सदस्य थिक मेहतर!


भोरे-भोर जखन हम
महानगरीक एहि बाट पर
बुलैत रहैत छी
तऽ
केहन जतनसँ
खड़रैत छी अहाँ
एकहक टा खढ़-पात
बाट पर फेकल
मारिते रास
बहारनि आ कर्कटकेँ
उठबैत छी,
जाहि सड़ल-गन्हाएल वस्तुक
लगीचो जाएब
अधिकांशक हेतु अछि कठिनाह
ताहि समस्त वस्तुकेँ अहाँ
एकत्रित करैत छी
समस्त अपवर्जितकेँ उठा
निर्दिष्ट स्थान पर फेकैत छी,
घिनाएल आ निरघिन लगैत सड़क
भऽ जाइए चकमक साफ
जेना चानन छीटल गेल हो,
सरिपहुँ
सफैयति आ पवित्रताक
पर्याय छी अहाँ
एक्कहु दिन बिना कामहि कएने
लागि जाइ छी अहाँ
अहाँक कर्मक सोझाँ श्रद्धावनत 
भऽ जाइ छी हम

— मिथिलेश कुमार झा

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