लघु प्रेम कथा 'सोरूप्रेक'


सरस्वती पूजाक तैयारी चलि रहल छल. सिंटू भोरे-भोर रजनीगंधा आ तुलसी मुंह मे ढारि घोष दा केर पान दोकान लग ठाढ़ भ' रिद्धिक बाट ताकि रहल छल. रिद्धि कें साड़ी मे देखबा लेल बेचारे कछमछा रहल छल.

बेर बीतल जा रहल छलै. सिंटू तीन खेप रजनीगंधा आ तुलसी खा क' थूकि चुकल छल. मुदा रिद्धि नै आएल. घोष दा सिंटू कें डपटैत कहलक- "जा जा बारी जा...आज के आसबे ना. असोस्थो आछे. सोरू प्रेक लग गया है पाएर मे. जखम है."

"लप्रेक, विप्रेक, बाप्रेक...ई सोरू प्रेक क्या होता है घोष दा?" सिंटू चिंतित भ' पुछलक.

घोष दा बाजल-"आरे..सोरू प्रेक...पातला कील...ओइ होता है."

एतेक सुनिते सिंटूक मुंह मंद पड़ि गेलैक. कांटी गड़बाक पीड़ा ओ स्वयं महसूस क' रहल छल.

— रूपेश त्योंथ


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