देसिल बयना अर्थात समकालीन स्थानीय भाषाक प्रवर्तक छलाह कवि कोकिल विद्यापति. गीतिपदक श्रेष्ठतम श्रष्ठा छलाह ओ आ तैं पंडित सं ल' निराखरक ठोर धरि पसरल हुनक रचना. संगीतमय हुनक रचना हुनके अंग्रेजी साहित्य केर शेक्सपीयर जकां स्थान देइत अछि. आइने अकबरी (1598 ई) केर संगीत प्रकरण मे विद्यापतिक नचारीक उल्लेख अछि. विद्यापति प्राकृत आ अपभ्रंश युग कें विसर्जित क' आधुनिक भाषाक उद्घोषक भेलाह.
सर जॉन बिम्स हुनका मादे कहने छथि-
सर जॉन ग्रियर्सन एहि बात कें साहित्यिक इतिहास मे अद्वितीय घटना मानैत छथि आ भविष्यवाणी केने छथि जे जहिया हिन्दू धर्मक सूर्य अस्त भ' जायत, जहिया कृष्णा भक्ति लुप्त भ' जायत, तहियो राधाकृष्ण लीला विषयक गीतक प्रति अनुराग कनियो घटत नहि. हुनक स्थान असमिया मे शंकर देव, बांग्ला मे चंडीदास, ओड़िया मे रामानंद राय आ हिंदी मे कबीर-तुलसी-सूरदासक स्थान सं ऊपर अछि. एही प्रकारें पूबरिया भारतक काव्य गगन मे उगल पहिल नक्षत्र छथि विद्यापति. ओ प्रकाण्ड मैथिल पक्षधर मिश्रक सहपाठी आ हुनक पित्ती हरिमिश्रक शिष्य छलाह.
'सात नगर भनहि होमरक जन्मभूमि होयबाक दाबी करओ, मुदा कवि विद्यापति कें छोड़ि हमरा एहन कोनो कविक नाम धियान मे नहि अबैत अछि जनिक दू भिन्न-भिन्न भाषा (बांग्ला-मैथिली) बजनिहार लोक अपन अपन भाषाक कवि होयबाक दाबी करैत हो.'
सर जॉन ग्रियर्सन एहि बात कें साहित्यिक इतिहास मे अद्वितीय घटना मानैत छथि आ भविष्यवाणी केने छथि जे जहिया हिन्दू धर्मक सूर्य अस्त भ' जायत, जहिया कृष्णा भक्ति लुप्त भ' जायत, तहियो राधाकृष्ण लीला विषयक गीतक प्रति अनुराग कनियो घटत नहि. हुनक स्थान असमिया मे शंकर देव, बांग्ला मे चंडीदास, ओड़िया मे रामानंद राय आ हिंदी मे कबीर-तुलसी-सूरदासक स्थान सं ऊपर अछि. एही प्रकारें पूबरिया भारतक काव्य गगन मे उगल पहिल नक्षत्र छथि विद्यापति. ओ प्रकाण्ड मैथिल पक्षधर मिश्रक सहपाठी आ हुनक पित्ती हरिमिश्रक शिष्य छलाह.
विद्यापतिक मिथिला मे शैव आ वैष्णव दुनू पर प्रभाव छल जे एतुक्का पूजा-अर्चना, बियाह, भजन-कीर्तन आदि मे भेटैत अछि. विद्यापति एकहि संग भक्ति रस, श्रृंगार रस आ वीर रस तीनू विधाक कवि छलाह जे राधाकृष्ण लीला, शिवपार्वतीक गुणगान, रानी लखिमाक विरह वर्णन आ विश्वास देवीक क्रातिकारी वर्णन सं परिलक्षित होइछ.
भाव अभिव्यक्ति, अनुकरणात्मकता, संगीतात्मकता, चित्रमयता, शब्दशक्ति आ लोकोक्ति व कहबी कें अपना काव्य मे समेटब हुनक रचनाक विशिष्टता अछि. आब जरूरति अछि जे वर्त्तमान समाज विद्यापतिक भिन्न-भिन्न शैली कें एकरा संरक्षित करय आ एहि विधा कें आगू बढ़ाबय. विद्यापति कें समाज मे जनक-जानकी, शिव-पार्वती जकां भगवती घर सं दरवाजाक भीत धरि स्थान दिअय. हुनक समस्त रचना सर्व सुलभ उपलब्धता पर देल जाय आ हुनक पुण्य तिथि मनयबाक संग विद्यापति कें पढयबाक आ जन-गण कें हुनक रचना सं परिचय करयबाक प्रयास होअय.
विद्यापति गयाश्राद्ध मे अनुष्ठेय कर्म लेल गया पत्तलक, गृहस्त जीवनक व्रत आदि लेल वर्षकृत्य, धर्मशास्त्रीय निबन्ध विभागसार, नीतिकथा संग्रह पुरुष परीक्षा, गौरक्ष विजय, नातक, कीर्तिलता, कीर्तिपताका, गंगा वाक्यावली, शैव सर्वस्वसार, दान वाक्यावली, दुर्गा भक्ति तरंगिनी आदि पुस्तकक रचना कयलाह. ई सभ पुस्तक जन-जन धरि पहुंचत तखन ने विद्यापतिक झंडा ऊपर भ' सकत. मैथिली भाषा हमरा सभक कारणे हमरा सभ सं दूर भ' गेलीह, आब मात्र विद्यापतिक दैनिक जीवन मे तर्पण (यानी हुनक रचनाक उपयोग) मैथिली कें पुनः मिथिला मे प्रतिस्थापित क' सकैत अछि.
मैथिली विरोधी तत्व सभ दिन एकर अहित चाहलक धरि जानकी वाल्मिकी रामायण केर अरण्य कांड मे स्वयं कहै छथि — "कालकुटं विषंपित्वा, स्वस्तिमान गन्तु मिच्छसि" अर्थात मैथिली तत्वक विरोध केनिहार कालकुट विष सं खेलाइत अछि आ स्वयं नाशक भागी होइत अछि.
कवि चूड़ामणि मधुपजी मैथिलीक स्थिति सं दुखी भ' लिखलाह—
सुनत के' ककरा कहू, दारुण अपन दुःख हाय
चारिकोटिक माय भ' मैथिली क्रंदन करैत छथि आइ
तैं आउ हम सभ ली, जे विद्यापतिक झंडा ल' सभ मैथिल मैथिलीक संवाहक बनब. मैथिली द्वारा हमरा मिथिला भेटत आ मिथिला हमर मैथिलत्वक रक्षा करत. यात्रीजी मिथिला कें एहि परिपेक्ष्य मे धन्य मानैत अपना कें सेहो धन्य मानैत छथि. हुनक दू पांतिक संग अपन विचार कें विराम देब.
'अहींक अणु-अणु सं रचित जै देह
अहींक स्फूर्तिस्पर्द जै चैतन्य
अहीं मिथिले ! जै कि जन्म स्थान
जै की मैथिल, धन्य तैं हम धन्य'
— रत्नेश्वर झा
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