दलाल

जिला मुख्यालयक बाहर एकटा घनगर गाछक छाहरिमे दूटा अधवयसु बक-झक (गपक माध्यमसँ झगड़ा) कऽ रहल छल. एकटा दलाल छल आ दोसर आम आदमी. आम आदमी चमकैत बाजल," हमरा अहाँ मुर्खाधिराज बूझि लेलहुं की ? अपन ठेकान नै आ हमरा कानून पढ़बऽ आबि गेल.
एते सूनि दलालो जोशमे आबि गेल आ काँख तऽर दाबल कागतक बण्डल पटकि आँखि तरेरैत बाजल," तँ की हम भिखमंगा बुझाइत छी ? अपन स्वार्थसँ अहाँ आयल छी. ई हमर कर्मस्थल अछि तें नै तँ सब गरमी झाड़ि दितहुं.
आम आदमीकें गोस्सा चढ़ले रहै आब और बढ़ि गेलै. थरथराइत देह आ तोतराइत आवाजमे फुँफकारलक,"सा. . ." गारिसँ  शुशेभित करैत," कतबो सूट-बूट लगा ले रहबें तऽ दलाले. जनता आ पदाधिकारी दुनूकें ठकै बला दलाल. तोरा तँ जेलमे जएबाक चाही.
दलाल कने कननमुँह केने बाजल,"हँ, हम दलाल छी मुदा भीतर बैसल पदाधिकारीसँ नीक छी ओ तँ बिनु मेहनत केने टाका लऽ कऽ कुर्सी आ इज्जत बेच दै छै मुदा हम मेहनत केलाक बाद टाका लै छी आ  किछु नै बेचै छी. लोककें चोर-डकैत-घुसखोर नीक लागै छै मुदा कर्मठ-इमानदार नै."
आम आदमी चुप भऽ गेल आ एकटा पनसैया आ कागत दलालक हाथमे दऽ देलक.

— अमित मिश्र
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