बात किछुओ तऽ छैक अबस्से
एहिना नहि हरियाअलि छी ।
रहि-रहिकऽ अहाँ चेहा उठै छी
जगलेमे सपनायलि छी ।।
पाथल कान नजरि पाथल अछि
हृदयमे केयो छापल अछि ।
आँखिमे ककरो छाह अबैए
कत्तहु अहाँ लोभायलि छी ।।
लगले दलानपर लगले बाड़ी
लगले फूलक क्यारीमे ।
गमकै गुलाब गमगम-गमगम
भमरा देखि लजायलि छी ।।
ककरो आसमे सगर रातिभरि
जगले रहल पुनिमक चान ।
अहुँक हालत अछि किछु तेहने
एखनोधरि भखुआयलि छी ।।
खनहि उदास, खनहि मुस्कियाइत
खनहि तिरहुत, फगुआ राग ।
नेहक चेन्ह नै छपय छिपौने
आब अहाँ पकड़ायलि छी ।।
— मिथिलेश कुमार झा